की मेरी हर मुकम्मल साँस तुझसे रूबरू अब तक
की तू मेरे जेहन में बस गयी इक याद की माफिक
मेरी रूह भी इससे बाकिफ नहीं अब तक
की तुझ से दो चार नजरे होने का अहसास तक न था
की तुझसे नजदीकिय बढ़ने का इत्मिनान तक न था
की मैंने हर लम्हे को नफासत से संभाला है
की गर तू आये तो मुझको अहसास रहे मरने तक
की मेरी आदते बाबस्ता न थी उस पल के गुजरने तक
की मेरी आदते अब शौक बन के कहर
की तेरे ताउम्र साथ रहने का वादा कभी न था
की मेरे हलक ने मांगी दुआ रूह के फना -इ- वक्त तक
मेरा आशियाना रोशन कभी इतना न हुआ
तुने गर दो लम्हों का बसेरा न किया होता
गर मेरी इबादत यु मुमकिन न हो कभी पाती
तो तेरी यादो से बन के क्यों आयत पढ़ रहा होता